ये आसमान भी सोचता होगा,
कितनी बेरंग सी दुनिया है इसकी,
उपर से देख कर इस दुनिया को ये पाता होगा,
परछाई भी उन्ही रंगो मे सिमटी है इसकी
ये ज़मीन भी सोचती होगी,
कितना ठहरा सा जहाँ है इसका,
नज़र अपनी जब भी उपर उठाती होगी,
सोचती होगी काश बादलों सी रफ़्तार होती इसकी.
ये हवा भी सोचती होगी,
कहीं ठहर कर थोड़ी सी साँसें ही ले पाती
हर समय इस चलने की आदत से दूर
कहीं थोड़ा रुक, इस दुनिया को काश महसूस भी कर पाती.
इन बेज़ुबान रंगो मे खोई,
इस बेपनाह से समंदर मे सोई,
इन वीरान सी रातों मे, इन चीखते हुए दिनो मे
इस गहरी सी ज़मीन मे बोई,
हर जगह है ... बस चाहतें, ख्वाहिशें,
जैसे ढूँढ रहा है हर कोई.....
कुछ ना कुछ...
कोई ना कोई...
-अंकित
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